Gintara (Abacus) Kya hai Abacus

यह सबसे पहला और सबसे सरल यन्त्र है (Gintara (Abacus) Kya hai Abacus ) जिसका प्रयोग गणना करने में सहायता के लिए किया गया था। इसका इतिहास 5,000 वर्षसे भी ज्यादा पुराना है। ईसा पूर्व 3500 से 3000 में चीनमें इसका व्यापक उपयोग होने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। आश्चर्य की बात यह है की गिनतारा आजकल भी अपने प्रारम्भिक रूप में ही रूस, चीन , जापान, पूर्वी एशिया के देशों तथा भारत में भी कुछ स्कूलों में प्रयोग किया जाता है।

Gintara (Abacus) Kya hai Abacus

गिनतारा संलग्न चित्र की तरह लकड़ी का एक आयताकार ढांचा होता है, जिसमें 8 या 10 क्षैतिज (Horizental) छङें होती हैं। प्रत्येक छड. द्वारा इस प्रकार विभाजित किया जाता है कि एक ओर 5 मनके हों तथा दूसरी ओर केवल एक मनका हो। अकेला मनका संख्या 5को व्यकत करता है तथा दूसरी ओर का प्रत्येक मनका संख्या 1 को व्यक्त करता है। मनकों को छड़ों पर विभाजक छड़ की ओर अथवा उससे दूर खिसकाकर गणनाएँ की जाती हैं। कहा जाता है कि गिनतारे का नियमित उपयोग करने वाले व्यक्ति आधुनिक इलेक्ट्राँनिक डेस्क कैल्कुलेटर से भी ज्यादा शीघ्र गणनाएँ कर लेते हैं।

 

नेपियरी बोन्स Napier’s Bones

स्कॉटलैण्ड के गणितज्ञ जॉन नेपियर ने सन् 1617 में कुछ ऐसी आयताकार पटिट्यों का निर्माण किया था, जिनकी सहायता से गुणा करने की जा सकती थी। ये शीघ्रतापूर्वक की जा सकती थी। ये बनी थीं, इसलिए इन्हें नेपियरी बोन्स कहा गया। संलग्न चित्र में ये पटिट्याँ दिखायी गयी हैं। ये कुल 10 आयताकार पटिट्याँ होती हैं, जिन पर क्रमशः 0 से 9 तक के पहाड़े इस प्रकार लिखे होते हैं कि एक पट्टी के दहाई के अंक दीसरी पट्टी के इकाई के अंकों के पीस आ जाते हैं। इन पट्टियों का विवरण और उपयोग नेपियर की मृत्यु के बाद ही संसार के सामने आया था।

स्लाइड रूल Slide Rule जॉन मेपियर

ने सन् 1617 में गणनाओं की लघगणक (Logarithm)  विधि का आविष्कार कर लिया था। इस विधि में दो संख्याओं का गुरणनफल,  भागफल, वर्गमूल आदि किसी चुनी हुई संख्या के घातांकों को जोड़कर या घटाकर निकाला जाता है। आज भी बड़ी –बड़ी गणनाओं में, यहाँ तक कि कम्प्यूटर में भी, इस विधि का प्रयोग किया जाता है। सन् 1620 में जर्मनी के गणितज्ञ विलियम आटॅरेड ने स्लाइड रूल नामक ऐसी वस्तु का आविष्कार किया जो लघुगणक विधि के आधार पर सरलता से गणनाएँ कर सकती थी। इसमें दो विशेष प्रकार से चिन्हित पटिट्याँ होती हैं, जिन्हें बराबर में रखकर आगे –पीछे सरकाया जा सकता है। उस संख्या के किसी साझा आधार पर लघुगणक के समानुपाती होती है।

स्लाइड रूल का उपयोग वैज्ञानिक गणनओं में कई शताब्दियों तक किया जाता रहा। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में इलेक्ट्र्निक पॉकेट कैल्कुलेरों के अस्तित्व में आ जाने के बाद ही इनका प्रयोग बन्द हुआ है।

पास्कल का गणना यन्त्र Pascal’s Calculator

 गणनाएँ करने वाला पहला वास्तविक यन्त्र महान फ्रांसीसी गणितज्ञ और दार्शनिक ब्लेज पास्कल ने सन् 1642 में बनाया था। इसे पास्कल का कैल्कुलेटर या पास्कल की एडिंग मशीन कहा जाता है। इस नशीन का प्रयोग संख्याओं को जोड़ने और घटाने में किया जाता था। जब पास्कल केवल 18 वर्ष का था तब अपने टैक्स सुपरिन्डेन्ट पिता की सहायता के लिए उसने यह यन्त्र बनाया था।

इस यन्त्र में कई दाँतेदार चक्र (पहिए) और डायल होते थे। प्रत्येक चक्र के 10 भाग होते थे और वह आपस में इस प्रकार जुड़े होते थे कि जैसे  ही कोई चक्र एक बार पूरा घूम जाता था, तो उससे बायीं ओर का चक्र केवल एक भाह (अर्थात् 1/10 चक्र ) घूमता था, जिससे हासिल (Carry) का प्रभाव उत्पन्न होता था। तो संख्याओं का योग अथवा अन्तर एक संख्या को डायल करके तथा दूसरी संख्य़ा के बराबर चक्रों को क्रमशः घुमाकर ज्ञात किया जाता था। इस मशीन से पास्कल के पिता को गणनाएँ करने में काफी सहायता मिली। सन् 1645 में इस मशीन को पेटेण्ट कराया गया और व्यापारिक स्तर पर उतपादित करके बेचा गया, परन्तु उसके बाद पास्कल का ध्यान गणित तथा विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में लगने लगा, इसलिए वह इस मशीन में अधिक सुधार नहीं कर सका। यह कार्य तएक जर्मन गणितज्ञ गौटफ्रीड लेबनिज ने किया।

बैवेज का डिफकेन्स इंजन Difference Engine of Babbage

कैम्ब्रिज वश्वविध्धालय के गणित के प्रोफेसर चान्ल्स बैवेज ( 1792-1871) को आधुनिक कम्प्यूटरों का जनक (पिता) कहा जाका है। गणित के क्षेत्र में उनका पहला महत्तवपूर्ण योगदान था एक ऐसा यन्त्र बनाना, जो विभिन्न बीजगणितीय फलनों का मान दशमलव  के 20 स्थानों को शुध्दतापूर्वक ज्ञात कर सकता था। इस मशीन को डिफरेन्स इंजन कहा जाता था, क्योकि यह इस सिध्दान्त का आधार पर बनायी हयी ती कि किसी बीजगणितीय बहुघातीय फलन (Polynomial) में पास –पास के दो मानों का अन्तर सदा नियत रहता है। संलग्न चित्र में चाल्र्स  बैबेज का डिफरेन्स इंजन दिखाया गया है।  यह यन्त्र वास्तव में बहुत उपयोगी था, क्योंकि इससे अनेक प्रकार की गणितीय सारणियाँ मिनटों में तैयार हो जाती थीं, जिनका उपयोग उन दिनों बीमा, डाक, रेल, उत्पादन आदि क्षेत्रों में व्यापक रूप से किया जाता था। आगे चलकर इस मशीन के सधरे हुए रूप का प्रयोग बीमा कम्पनियों मे जीवन सारणियाँ बनाने में किया था।

कम्पयूटर की कितनी पीढ़ियाँ अब अस्तित्व में आ चुकी हैं

उत्तरः-  कम्प्यूटर की पीढ़ियाँ Generation of Computer     

पहली पीढ़ी के कम्प्यूटर  Firsrt Generation Computers इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों में वैक्यूम ट्यूबों (Vacuum Tubes)  का प्रयोग किया जाता था। इस पाढ़ी का समय मोटे तौर पर सन् 1946 से 1955 तक माना  जाता था। इस पीढ़ी के कम्प्यूटर आकार में बहुत बड़े होते थे और इकनी गर्मी पैदा करते थे कि एयरकण्डीशनिंन अनिवार्य होती थी। ये गति में धीमें होते थे और इनका मूल्य भी तुलनात्मक दृष्टि से बहुत अधिक होता था। इनमें कोई ऑपरोटिंग सिस्टम न होने के कारण आवश्यकता पड़ने पर विभिन्न उपकरणों को जोड़ने या हटाने तथा स्विच आदि दबाने का कार्य उपयोगकर्ता को स्वयं ही करना पड़ता था, जो बहुत ही असुविधाजनक होता था।

इस पीढ़ी के कुछ कम्प्यूटरों के  नाम इस प्रकार हैं— एनिएक, एडसैक, एडवैकष यूनीवैक-1, यूनीवोक-2, आई.बी.एम.-701, आई. बी.एम.-650, माप्र-3, बपोज-2202 ।

दूसरी पीढ़ी कम्प्यूटर  Second Generation Computers

इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों का समय सन् 1955 से 1965 तक माना जाता है। इससे पहले ही अमेरीका की लैबोरेटरी (Bell Labs) ने ट्रांजिस्टर ( transistor) की खोज कर ली थी, जो वैक्यूम ट्यूब की तुलना में हर तरह से बेहतर होता है।                                                                                            इसलिये कम्प्यूटरों की दूसली पीढ़ी अस्तित्व में आयी। इस पीढ़ी के कम्प्यूटर आकार में छोटे, गति में तेज तथा अधिक विश्वसनीय होते थे और उनकी लागत भी कम होती थी। ये बहुत कम गर्मी उत्पन्न करते थे, भी रहती थी।

इस पूढ़ी के कम्प्यूटरों में इनपुट ( Input) तथा आउटपुट ( Output)  के उपकरण बहुत सुविधाजनक होते थे, जिससे डाटा स्टोर करना तथा परिणाम प्राप्त करना सरल था। इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों में आई. बी. एम.-1401 प्रमुख है, जो बहुत लोकप्रिय था और बड़े पैमाने पर उत्पादित किया गया था। इस पीढ़ी के अन्य कम्प्यूटर थे—आई. बी. एम.-1602, आई.बी. ए.-501, यूनीवैक-1107 आदि।

इन कम्प्यूटरों का उपयोग मुख्य रूप से वैज्ञानिक कार्यों में किया जाता था,  लेकिन बाद में व्यापारीक कार्यों में भी किया जाने लगा।

तीसरी पीढ़ी के कम्प्यूटर Third Generation Computers

इस कम्प्यूटरों का समय सन् 1965 से 1975 तक माना जाता है। इनमें एकीकृत परिपथों (Interated Circuits) या चिपों (Chips) का उपयोग किया जाता था, जो आकार में बहुत छोटे होते थे और एक चिप पर सैकड़ों ट्रांजिस्टरों को अकीकृत किया जा सकता था। इनसे बने कम्प्यूटर आकार में छोटे गति में बहुत तेज तथा विश्वसनीयता में बहुत अधिक होते थे। इनके कार्य करने की गति इतनी तेज थी कि ये एक सेकण्ड के समय में लाखों  बार जोड़ने की क्रियाएँ कर सकते थे।

इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों के साथ ही डाटा को भण्डारित करने वाले बाहरी साधनो जैसे —डिस्क, टेप आदि का भी विकास हुआ, जिससे कम्प्यूटर की मुख्य मैमोरी पर पड़ने वाला दबाव कम हो गया और उनके लिए प्रोग्राम लिखना भी सरल हो गया। इसके कारण एक ही कम्प्यूटर पर एक साथ अनेक प्रोग्राम चलाना (Multiprogramming) तथा एक प्रोग्राम को कई प्रोसेसरों पर एक साथ चलाना (Multiprograming) भी सम्भव हो गया।

इस पीढ़ी के कम्प्यूटर आकार में छोटे होने के साथ-साथ सस्ते भी थे, जिसके कारण छोटी कम्प्यूटर थे – आई. बी. एम.-360  तथा 370 श्रृंखलाएँ, बरोज-5700,6700 तथा 7700 श्रृंखलाएँ, सी. डी. सी.—3000, 6000 तथा 7000 श्रृंखलाएँ, यनीवैक 9000 श्रृंखला, हनीवैल-6000 तथा 200 श्रृंखलाएँ, पी. डी पी.11/45 आदि।

 चौथी पीढ़ी के कम्प्यूटर Fourth Generation Computers

इस पीढ़ी के कम्प्यूटर का समय सन् 1995 से 1990 तक माना जाता है, हालांकि आजकल भी इनका भरपूर उपयोग किया जा रहा है। इनमें केवल एक सिलिकॉन चिप पर कम्प्यूटर के सभी एकीकृत परिपथों को लगाया जाता है, जिसे माइक्रोप्रोसेसर (Microprocessor) कहा जाता है।  वास्तव में ये अति वृहद् एकीकृत परिपथों को (very Large Scale Integerated Circuits-VLSI)  हैं, जिनमें एक  माइक्रो चिप पर हजारों-लाखों ट्रांजिसटरों को जमा दिया जाता है। इन चिपों का उपयोग  करने वाले कम्प्यूटरों को माइक्रो कम्प्यूटर (Micro Computer) कहा जाता है।

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ये कम्प्यूटर आकार में बहुत छोटे होते हैं जो एक मेज पर भी आ जाते हैं। इनमें बिजली की खपत बहुत कम होती है तथा ये सामान्य तापक्रम पर भी कार्य करने में समर्थ होते हैं। इनका मूल्य भी इतना कम होता है कि छोटे दुकानदार भी इन्हें खरीद सकते हैं। छोटे-छोटे कम्प्यूटरों की एक ऐसी श्रेणी भी अस्तित्व में आ गयी है, जिन्हें व्यक्तिगत कम्प्यूटर (Personal Computer) या पीसी (PC) कहा जाता है।  इन पर कार्य करना बहुत सरल और बहुत कम खर्चीला है।

इनके अलावा पर्सनल कम्प्यूटरों की एक ऐसी श्रृंखला भी बन गयी है, जो गति और क्षमता में बड़े-बड़े कम्प्यूटरों, से टक्कर लेते हैं। इन्हें पेण्टियम (Pentium) कहा जाता है, क्योंकि ये इण्टेल (Intel) नामक कम्पनी द्वारा बनाये हये माइक्रोप्रोसरों की पेण्टियम नामक श्रृंखला पर आधारित हैं। वर्तमान में इनका उपयोग और उत्पादन भारी संख्या में किया जा रहा है।

माइक्रो कम्प्यूटर बनाने वाली कम्पनियों की एक बहुत बड़ी संख्या है, जो विभिन्न श्रेणियों के पर्सनल कम्प्यूटर जैसे – पीसी-एक्सटी, पीसी-एटी, पेण्टयम आदि बनाती हैं, ऐंसी कुछ कम्पनियों के पीसी को उपयोग प्रायः समाप्त हो गया है और केवल पेण्टयम श्रेणी के कम्प्यूटर प्रचलन में हैं, जिनकी चार श्रेणियाँ पेण्टियम-1 से लेकर पेण्टयम-4 तक अस्तित्व में आ चुकी हैं।

 पाँचवीं पीढ़ी के कम्प्यूटर Fifth Generation Computers  

सन् 1990 के बाद से ऐसे कम्प्यूटरों के निर्माण का प्रयास चल रहा है, जिनमें कम्प्यूटिंग की ऊँची क्षमताओं के साथ-साथ तर्क (Logical) करने, निर्णय लेने (Decision Making ) तथा सोचने (Thinking) की भी सामर्थ्य हो।                                                                                                                                            

 

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